Wednesday, June 18, 2008

समझ नहीं पाता हू

कभी कभी इन् मत्लबो के लबो को समझ नहीं पाता हू
की यह लब इतने डूबे हुए क्यों है की दुसरो को देख नही पाते है

कभी कभी इन् धर्मो के कर्मो को समझ नहीं पाता हू
की यह कर्म इतने तंगी क्यों है की असली धर्म को भूल जाते है

कभी कभी इस प्रगति की गति को समझ नहीं पाता हू
की यह गति इतनी आपी क्यों है की ईमान खोये जाते है

कभी कभी अपने वाकैयो के आक्रयो को समझ नहीं पाता हू
की यह अक्राए कहे समझे जो तेरे कलम चल धुंड लाते है

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